हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
तिसरी मंजिल पर जो मेरा एक कमरा है
धुल हि धुल का बस उसपे पेहरा है
कोनेकोनेसे सदियोकि दबी आवाजो का चिल्लाता जत्था है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
दरवाजे का तो पूछो मत हात लगातेहि गुर्राता है
बारिश मिट्टि धुल धुप कि मारको हररोज जो वो सहता है
गुस्सेमे हवा को कहकर कभीकभी चौकटसे वो टकराता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
सरकती हुई खिडकीका अपनाहि एक ओरा है
गरिब अमिर ईमारतो को कैद करता एक नजारा है
तेढिमेढि सापजैसे सडको का एक नक्षा खिडकीसे छलगता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
छतको भी कुछ कहना है जो पपडि और बुंदे टपका रहि है
पिठ पे मौसम कि पिढा झेलते कमरेकि फर्शसे दिल अटका रहि है
फर्शसे जुदाईका दर्द टपकते बुंदोसे जो झलकता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
दिवारोपे नाजुकसि नक्षी दरारो कि जो बिखरि है
मानो पसिनेसे सिची कुछ इटे बगावत पर उतरि है
आए दिन दिवारोपे कोई नया डाग डेरा डालता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
भुरे रंग कि मेज पर मेरे धुल का फैला एक रेगिस्ता है
भुलकर भी जो हात फेरु तो बनता एक नया रास्ता है
कप्पेकप्पे मे उसके कागजो का कारवा बसता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
दिवारसे लगकर लंगडाती एक अलमारि है
लोहेकि उस अलामारी को ज़ंग लगने कि बिमारी है
बंद पडे मोटे टीव्हीके बोज से हालत उसकि खस्ता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
पुराने कंप्युटरका एक परिवार सालोसे एक मेज पे रहता है
माँ मॉनिटर पिता सीपीयु बेटी किबोर्ड और माउस जैसा बेटा है
माँ कि नजर कमजोर और पिता बुढा शुरु होते हि खासता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
प्लास्टिक कि दो पुरानी कुर्सीया अब जरजरसि हो गई है
यौवन कब का ढल गया अब खडे खडे हि गीर जाती है
कौन कहे कि निर्जीव मे स्वभाव नहि बसता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
पश्चिमका ढलता सुर्य पीपलकि पत्तियो को सफेद फर्शपे मेरे नचाता है
आढि तेढि किरणोसे दिवार को वो गुदगुदाता है
हवा भी पत्तियो से झिलमिल नृत्य करवाता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
नास्तिक हु फिर भी एक तसवीर टंगाई है
घरवालो कि जिद थी सोचा शांतीमे हि भलाई है
मोह माया मत्सरसे मन कहा बच पाता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है
कमरेमे और एक चीजभी तो है जीताजागता मै
जन्म से अब तक देखता बोलता चलता मै
मानवता के मातम उत्सव साथसाथ मनाता मै
जुबा बोलती पर मन कहा बोल पाता है
कदम कहि ओर और सफर कहि ओर होता है
नजर देखती कहि ओर नजारा कहि ओर बनता है
मन उलझता रिश्तोमे पर समझता कहा है
इस कमरे कि तरह बस खडा हु जीवनसे क्या वास्ता है
किसी वजहसे तो सहि लेकिन जीने कि वजह तो सोचता है
कदम कदम पे एक मंजिल है बस चलना अब रास्ता है
सच कहूँ हर चीज कि यहाँ एक अनसुनी दास्ताँ है...दास्ताँ है....
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